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Public Opinion: ओशिन सरकार ने कहा कि भारत को आजाद हुए 7 दशक से ज्यादा का समय हो गया है लेकिन हमें तो साल 2014 में आजादी मिली, जब सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें समानता का अधिकार दिया. हमें तो समाज अभी भी स्वीकार करने क…और पढ़ें

देहरादून के ट्रांसजेंडर्स ने लोकल 18 के सामने अपनी बात रखी.
देहरादून. अप्रैल 2014 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने किन्नर समाज को संवैधानिक दर्जा दिया था. अपने अस्तित्व और अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाला यह समाज आज भी सामान्य लोगों के बीच पढ़ने, लिखने और रहने में असहजता महसूस करता है. सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को 11 साल पूरे हो गए हैं, ऐसे में थर्ड जेंडर के जीवन में कितना बदलाव आया है, यह हमने उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले ट्रांसजेंडर्स से पूछा.
अदिति देहरादून की पहली ट्रांसजेंडर उद्यमी हैं, जिन्होंने नाचने-बधाई लेने की जगह पर अपना रेस्टोरेंट खोलकर उस पर काम करने का फैसला किया. उन्होंने लोकल 18 से कहा कि बाकी लोगों की तरह हमारे वर्ग के लोगों को अगर मौका मिले, तो हम भी कुछ कर सकते हैं. हम चाहते हैं कि सरकार सरकारी नौकरी में हमारे लिए कोटा सुनिश्चित करे. अन्य राज्यों में हम देखते हैं कि ट्रांसजेंडर सिविल सर्विसेज में मेहनत करके निकले हैं. उत्तराखंड सरकार से भी हमारी गुजारिश है कि हमें भी आगे बढ़ाया जाए.
‘हमें साल 2014 में आजादी मिली’
देहरादून में एलजीबीटी समुदाय के लिए ‘द वॉयस ऑफ वॉरियर्स फाउंडेशन’ से जुड़कर काम कर रहीं ओशिन सरकार ने कहा कि वह लॉ की स्टूडेंट हैं, जो देहरादून के डीएवी पीजी कॉलेज से एलएलबी कर रही हैं. वह थर्ड जेंडर्स की हक की लड़ाई लड़ना चाहती हैं, इसलिए वह लॉ कर रही हैं. उन्होंने कहा कि देश की उच्च अदालत ने भले ही नालसा जजमेंट से हमारे हक में फैसला किया हो लेकिन हमारी उम्मीदों के मुताबिक इस पर इम्प्लीमेंट नहीं हो पाया है. देश को आजाद हुए 7 दशक से ज्यादा का समय हो गया है लेकिन हमें साल 2014 में आजादी मिली, जब सुप्रीम कोर्ट ने हमें समानता का अधिकार दिया. उन्होंने कहा कि हमें समाज अभी भी एक्सेप्ट करने के लिए तैयार नहीं है. सिर्फ अधिकार कागजों तक ही सीमित रह गए हैं, इन पर काम होना चाहिए.
‘परिवार से भी सपोर्ट नहीं मिलता’
वहीं अनुष्का ने कहा कि थर्ड जेंडर के साथ पैदा हुआ बच्चा न खुद समझ पाता है कि उसमें कैसे बदलाव हो रहे हैं और न ही दूसरे उसे समझ पाते हैं. ट्रांसजेंडर को आज भी समाज में नीच समझा जाता है. दूसरों की तो दूर की बात है, परिवार से भी सपोर्ट नहीं मिलता है. घर वाले साथ चलने में भी शर्मिंदगी महसूस करते हैं. हम लोग बचपन से ही इतना कुछ झेलते हैं, जिस कारण हमें स्कूल बीच में ही छोड़ना पड़ता है. उन्हें भी परिवार से सपोर्ट न मिलने के कारण पढ़ाई छोड़नी पड़ी और फिर वही काम, लोगों की शादी-ब्याह में बधाई लेने का काम भी करना पड़ा.
संविधान दे रहा सबको समान अधिकार
न्यायवाणी फाउंडेशन के फाउंडर दीपक शर्मा ने लोकल 18 से कहा कि ट्रांसजेंडर को साल 1994 में तमिलनाडु में मतदान का अधिकार मिला. सबसे पहले इसी राज्य ने किन्नर या हिजड़ा समुदाय को थर्ड जेंडर की मान्यता दी थी. साल 1998 में मध्य प्रदेश की शबनम मौसी विधानसभा का चुनाव लड़कर विधायक बनी थीं. श्रीगौरी सावंत ने 11 साल पहले सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों को मान्यता दिलाने के लिए एक याचिका दाखिल की थी, जिस पर फैसला सुनाते हुए देश की सबसे बड़ी अदालत ने थर्ड जेंडर को उनके अधिकारों की बात की. 2019 में राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद थर्ड जेंडर के अधिकारों को कानूनी मान्यता मिली. उन्होंने कहा कि 2014 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले ने थर्ड जेंडर को संवैधानिक अधिकार दे दिए और सरकार को निर्देशित किया कि वह इन अधिकारों को लागू करने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करे. उसके बाद 5 दिसंबर 2019 को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद थर्ड जेंडर के अधिकारों को कानूनी मान्यता मिल गई. उनकी फाउंडेशन महिला, पुरुषों के साथ-साथ थर्ड जेंडर के लिए कानून और नियमों से जुडी वर्कशॉप आयोजित करती हैं क्योंकि ये भी हमारे समाज का ही हिस्सा है.